बदलती दुनिया में भारत की व्यापार नीति की चुनौतियां
वैश्विक वाणिज्य वस्तु व्यापार में 2023 के दौरान तेजी से गिरावट आने का अंदेशा जताया गया है। इसकी गिरावट के लिए कई उत्तरदायी कारक हैं-जैसे यूरोप, चीन और अमेरिका जैसी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के बाजार में गिरावट का रुख, खाद्य व ईंधन के तेल की कीमतों में इजाफे के कारण रहन-सहन के खर्चे और विनिर्माण की लागत में बढ़ोतरी, कई देशों में सख्त मौद्रिक नीति की स्थितियां और आपूर्ति श्रृंखला में बार-बार रुकावट आना। इसलिए वैश्विक व्यापार में 2022 में 3.5 फीसदी की गिरावट और 2023 तक एक फीसदी तक की गिरावट आने का अंदेशा है। (डब्ल्यूटीओ प्रेस/909, 5 अक्टूबर, 2022)
हालांकि वैश्विक व्यापार में कमी आना नया मुद्दा नहीं है। दरअसल 1990 के दशक के शुरुआती सालों में वैश्विक व्यापार को वैश्विक मूल्य श्रृंखला (जीवीसी) से गति मिली थी।
वर्ष 2008-09 के वित्तीय संकट के बाद इसका पुनर्निर्धारण किया गया था, उसके बाद से व्यापार की वृदि्ध दर मंद पड़ी है। फिर इसमें क्या नया है? बीते दशक के शुरुआती सालों में पूर्वी एशिया में आई प्राकृतिक आपदा के मद्देनजर जीवीसी में बदलाव किया गया था। लिहाजा इसका प्रतिकूल असर एक खास समय और व्यापार पर पड़ा था। इस दशक के अंत में अमेरिका-चीन में व्यापारिक युद्ध शुरू हो गया था और रणनीति ‘चीन प्लस वन’ के तहत जीवीसी का विविधीकरण किया गया था।
महामारी के बाद जीवीसी के पुनर्निर्धारण और विविधीकरण के लिए प्रक्रिया को और तेजी से आगे बढ़ाने की जरूरत थी। यूक्रेन संकट ने इस प्रक्रिया पर सबसे ज्यादा असर डाला। इस युद्ध के जल्दी खत्म होने की संभावना क्षीण होती दिख रही है। इस युद्ध से यूक्रेन में भारी तबाही हुई है और रूस से राजनीतिक रूप से पुन: तालमेल स्थापित करने में अधिक समय लग सकता है। जीवीसी के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों और खनिजों के आपूर्तिकर्ता रूस और यूक्रेन रहे हैं। इन अभूतपूर्व एवं अनपेक्षित घटनाओं का प्रभाव यह होगा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उतार-चढ़ाव व जोखिम का पुनआर्कलन करते रहना पड़े। साथ ही साथ वैश्विक कारोबारी साझेदारों के साथ नए सिरे से तालमेल भी करना पड़े।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जीवीसी में इतना बदलाव किया जाए कि उत्पादन की संपूर्ण प्रक्रिया अपने ही देश तक सीमित हो जाए। जीवीसी के लिए बदलाव की कीमत अदा करनी पड़ती है और पूंजी के निवेश की भी जरूरत होती है। लिहाजा यह महंगा सौदा साबित होता है। कोरोना महामारी के बाद की स्थितियां इन रुझानों को आगे बढ़ाने के लिए उचित प्रतीत नहीं होती हैं।
वैसे उत्पादन का विखंडीकरण नियमित प्रक्रिया है। अर्थव्यवस्थाओं में अलग-अलग विकास के स्तर यह तय करते हैं कि आपूर्ति श्रृंखला नेटवर्क लगातार बढ़ रहा है और विकसित हो रहा है। हालांकि ऐसे समय में अंतर यह होगा कि यह मजबूती का रास्ता खोजेगी। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी दोहरी/बहु इनपुट के स्रोत को ढूंढ़ेगी और सहयोग के रास्ते तलाशेगी। ऐसे में अंतर क्षेत्रीय व्यापार या क्षेत्रीय व्यापार ब्लॉक में व्यापार को बढ़ावा मिलेगा।
लिहाजा बदलते वैश्विक व्यापार परिदृश्य के अनुकूल भारत को क्या करने की जरूरत है? पहला, भारत को निर्यात लक्ष्य हासिल करने के लिए यह परिस्थितिवश जरूरी हो गया है। इसके तहत भारत को पारंपरिक बाजारों और व्यापारिक साझेदारों से परे विविधीकरण करना होगा। बीते कुछ सालों के दौरान भारत के निर्यात में बढ़ोतरी दर्ज हुई है लेकिन यह बढ़ोतरी नियमित रूप से नहीं हुई है। निर्यात में बढ़ोतरी के प्रमुख कारण मूल्य का प्रभाव, महामारी के दौर के दौरान विकल्पों की तलाश और यूक्रेन संकट के कारण व्यापार मार्ग में अवरोध हैं।
विनिर्माण क्षेत्र की गुणवत्ता को बेहतर करने की जरूरत है। इससे नियमित रूप से व्यापार के विकास में मदद मिलेगी। इस लक्ष्य को कम समय में हासिल करने का रास्ता जीवीसी में सहभागिता करना है। व्यापक नीति ढांचे की बदौलत अनुकूल कारोबारी मौहाल को बढ़ावा दिया जा सकता है। इससे नियामकीय सुधार और आधारभूत ढांचे व लॉजिस्टिक्स में विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। ऐसा होने पर भारत निर्यातोन्मुख विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का आकर्षक केंद्र बन सकता है। दूसरा, मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) की सहर्ष स्वीकार करना चाहिए क्योंकि ये जीवीसी में भागीदारी मुहैया कराने की कुंजी है। भारत ने इस साल दो समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं।
ये समझौते यूएई और ऑस्ट्रेलिया के साथ किए गए हैं। हो सकता है कि इन समझौतों से भारत को वैश्विक या खास क्षेत्र में जीवीसी भागीदारी में बढ़ोतरी मिलने का फायदा नहीं मिले। ऑस्ट्रेलिया से एफटीए अंतरिम समझौता है और इसमें सामान और सेवाओं को सीमित दायरे में शामिल किया गया है। लिहाजा अधिक व्यापक और वास्तविक जरूरतों पर आधारित समझौते पर विचार-विमर्श जारी है। यूएई में विनिर्माण और जीवीसी का प्रमुख केंद्र नहीं है। इसलिए यह समझौता भारत के जीवीसी से संबंधित उद्देश्यों को पूरा नहीं करता है। दूसरा, भारत को जीवीसी में प्रमुख रूप से भागीदारी करने वाली प्रमुख कारोबारी अर्थव्यवस्थाओं के साथ कारोबारी समझौतों पर वार्ता करने की जरूरत है।
इस दौरान सभी कारोबारों, निवेशों और विकसित उपबंधों में उदार रुख अपनाए जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा भारत को कम से कम एक बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौते – क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसेप), व्यापक व प्रगतिशील ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) या इंडो पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) का सदस्य बनना चाहिए। क्षेत्रीय व्यापार समझौते अंतरराष्ट्रीय व्यापार के आधार स्तंभ हैं और भारत को व्यापार नीति के एजेंडे में इन्हें अवश्य शामिल करना चाहिए।
तीसरा, यह जरूरी है कि भारत अपने पारंपरिक रुख और व्यापार से जुड़े मुद्दों से परे बातचीत का स्तर विकसित करे। वैश्विक स्थितियों से तालमेल स्थापित करने के लिए घरेलू परिस्थितियों को तैयार करने की जरूरत है। यह खासतौर पर श्रम और अंतरराष्ट्रीय मानकों पर लागू होते हैं क्योंकि सभी अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों के ये दोनों अनिवार्य हिस्से होते हैं। महामारी के बाद के दौर में व्यापार को अधिक समावेशी और सतत बनाए जाने की जरूरत वैश्विक स्तर पर भी महसूस की गई है।