ऐसे पद का क्या मान जो देह के साथ कार्यक्षेत्र को भी जला दे …
सभी को विदित है कि स्वयंभू नाम, पद, प्रतिष्ठा की होड़ धर्म, समाज व राष्ट्र को विनाश की ओर ले जाती है। यह सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षा ही है जो अपने देह के साथ छल-कपट से या अपने साथियों की योग्यता को दरकिनार कर छीना गया मान सम्मान, जिसके लिए हमने न जाने कितने काबिल साथियों का हक मारा होगा। जिससे हमें ऊपरी मन से चाहने वाले हमारी देह के साथ हमारी सब अभिलाषा, चाहत उसी आग के हवाले कर देते हैं, और कहते हैं जब राजा रजवाड़ों का कुछ नहीं रहा तो तुम्हारा क्या? इसका प्रत्यक्ष उदाहरण जैन समाज की संस्थाएं है। जो महत्वकांक्षा को उड़ान के पर लगाती है। समाज में हो रही दुर्दशा को चिंतन मनीषी ने सही कहा है कि जैन समाज की सामाजिक संस्थाएं महत्वकांक्षी व्यक्तियों को समाज के स्वयंभू नेता बनाने के मंच बन गए हैं, इस वजह से यह संस्थाएं समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का मंच बनने के बदले प्रतिष्ठा का मंच बन कर रह गई है। नाम, पद, प्रतिष्ठा किसे अच्छा नहीं लगता, मगर राजनीति में तो ये सब जैन समाज से कोसों दूर हो गया है। अब सिर्फ आसान और सस्ता तरीका’ धर्म समाज ही रह गया है, क्योंकि वह किसी की बपौती नहीं, धार्मिक व सार्वजनिक है । जिसे सब अपना अपना लाभप्रद कार्य सिद्ध करते हुए जब तक पद, प्रतिष्ठा व अपने कार्य क्षेत्र को भी अपने ही चाहने वाले अपनी ही देह के साथ आग के हवाले ना कर दे। वरना किसी की मजाल की जीते-जी हमसे कोई हमारा पद ले या हम स्वयं अपनी स्वेच्छा से किसी के हाथों सौंप दें। जिससे दुनिया में हमारी देह ना रहने पर नाम, पद, प्रतिष्ठा व हमारा कार्य क्षेत्र सुचारू रूप से चलें ।