जब संत, मंदिर ,तीर्थ जैन समाज के हैं फिर इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की ही क्यों .?
इंदौर ! (देवपुरी वंदना) जब समाज के जिम्मेदार व्यक्तित्व अपने स्वयं के नाम ,पद, प्रतिष्ठा के लिए पूरी जोर आजमाइश करता है । तब हर तरह के दांवपेच अपनाता है व अपने साधर्मी को भी दुश्मन की नजर से देखता है । और अपने मकसद में कामयाब हो जाता है इसी प्रकार वह अपनी दुकान , व्यवसायिक और क्षेत्र व कुल परिजनों की सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हुए अपने कर्तव्य का निर्वहन करता है । करना भी चाहिए ।
तो फिर अपने धर्म ,समाज पर आए संकटों की सुरक्षा व रक्षा के लिए सरकार या अन्य स्त्रोतों पर निर्भर क्यों रहता है ? क्या क्या हमारा समाज, हमारे मंदिर, हमारे तीर्थ क्षेत्र हमारे अपने क्षेत्र न हो कर सार्वजनिक क्षेत्र रहते है इसलिए ?
जिस कुल ,धर्म,समाज ,संस्कार ,
संस्कृति से उसकी पहचान जानी जाती है । वह क्या दिखावा या आडंबर का प्रतीक रहा गया है ।
वही दूसरी ओर इतिहास गवाह है कि हमारे पूर्वज हमारी इसी संस्कार संस्कृति के साथ तीर्थों व हमारी धरोहर को बचाने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगाने के साथ-साथ अपनी जान की परवाह नहीं करते थे । मगर आज के दौर में हम अपनी महत्वाकांक्षा भुनाने के लिए सब घटना दुर्घटना को नजर अंदाज कर देता है ? या कहे तो आज के दौर में संत का सानिध्य बस अपनी और अपने कुल व परिवार की भौतिक सुख-सुविधाओं के लाभ के लिए ही रखता है । अपना काम निकलने के बाद कौन संत कौन सा समाज व कौन सा तीर्थ क्षेत्र इसी सोच के चलते आज समाज को जिम्मेदार व्यक्तित्व समाज में हो रही विकृति को आज घर बैठते हुए मोबाइल पर ही विरोध दर्ज करा कर अपनी महानता के झंडे लहराने से खुश नजर आता है । पिछले कई दिनों से हमारे आराध्य की पूज्य भूमि मंदिर तीर्थ क्षेत्रों पर हो रहे आक्रमण से भी किसी को कोई सरोकार सा नहीं रह गया। मगर आश्चर्य तब होता है जब विगत दिनों श्रमण संस्कृति की पहचान जैन मुनि की निर्दयता पूर्वक हत्या कर 9 टुकड़ों में विभाजन करने के बाद भी जिम्मेदार व्यक्तित्व व समाजसेवी राजनैतिक दलों की क्रिया प्रतिक्रिया करते हुए ।
शासन-प्रशासन को दोषी मानते हुए बस ज्ञापन का आंदोलन करते हुए कैंडल मार्च निकालकर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेता है ?
क्या आज जिम्मेदारों ने मतभेद को इतना गहरा मनभेद बना लिया है कि वह अपने साधर्मी के गुरु को गुरु की दृष्टि से नहीं देखता है ? मैं श्रमण संस्कृति के उन्नायक सभी गुरुवर से त्रिवार नमोस्तु करते हुए निवेदन करता हूं कि अपने -अपने भक्तों को इतना अपना कट्टर गुरु भक्त ना बनाएं कि वह दूसरे गुरु को गुरु न समझते हुए एक दुश्मन की तरह व्यवहार करें । सभी का अपना अपना आचरण और व्यवहार रहता है सभी के शरीर की पांचों उंगलियां एक जैसी कभी नहीं रही ना रहेगी अगर सभी उंगलियां एक जैसी हो गई तो मुट्ठी का कोई महत्व नहीं रहेगा सभी जानते हैं कि अपनी मुट्ठी एकता का प्रतीक है । अगर अभी भी एकता नहीं रही तो उसके परिणाम जो कभी हमारा तीर्थ का हुआ है अब हम हमारी आने वाली पीढ़ी को सिर्फ फोटो में ही दिखाते नजर आएंगे ? गिरनार जी की तरह और भी हमारे तीर्थ हमारी उदासीनता के पात्र हो जाएंगे ! जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण इंदौर स्थित गोमटगिरी तीर्थ क्षैत्र है समय रहते अगर तीर्थ की सुरक्षा कर लेते तो आज इंदौर के पदेन पदाधिकारियों को शासन – प्रशासन मैं बैठे अजैनो का मुंह नहीं देखना पड़ता व नहीं उनके सामने हमें गीडगिडाने की आवश्यकता होती ।
अगर समय रहते पदैन पदाधिकारी अपनी अकड़ को छोड़ समाज के श्रावक बंधुओं की बातों से सहमत हो कर समाज हित के लिए सोचते तो अच्छा होता जब किसी विद्यालय में छात्र अपनी मर्जी का कार्य करते हैं तब वह विद्यालय न हो कर पर्यटक क्षैत्र सा हो जाता है ।
अभी भी अवसर है जब जागो तब सवेरा की कहावत को चरितार्थ सत्य करते हुए आपनी महत्वाकांक्षा को दूर कर गुरु सानिध्य में एकता का बिगुल बजा कर समाज हित हेतु कुछ सोच सकते हैं अब चिंतन – मनन कर हमारे समाज को सकारात्मक सोच संगठन की नई दशा नई दिशा की और ले जा सकते हैं
पुनः गुरुदेव के चरणों में शीश झुकाते हुए निवेदन हैं कि भारत देश के विभिन्न प्रांतों के गांव, शहर, नगर ,कस्बों, में चातुर्मास लाभ के लिए विराजमान है सूत्रों की गणना की प्राप्त जानकारी के अनुरूप आज भारत देश की भूमि पर मात्र 2,135 गुरुवर ही श्रमण संस्कृति की पहचान मयूर पिच्छी – कमंडल धारण करे हुए हैं । जो अपनी समाज, संस्कृति की रक्षा के लिए कटु सत्यता से श्रावक श्रेष्ठी बंधुओं मे भटकाव की स्थिति को स्थिर करते हुए समाज में हो रहे मनभेद को एक सूत्र में पिरोने का सफलतम कार्य इस चातुर्मास ( वर्षा योग ) मे कर सकते हैं। क्यों कि गुरुवर ही जानते हैं कि आर्थिक लाभांश और परिजनों को भौतिक सुख-सुविधाओं की बढ़ती महत्वकांक्षा के लिए गुरु भक्त
किस किस राह से गुजर जाते हैं।