राष्ट्रहित के लगाव में जैन परंपरा व संस्कार, संस्कृति, के साथ अवमानना क्यों….?
इंदौर ! (देवपुरी वंदना ) धर्म ,समाज, संस्कार, संस्कृति ,परंपरा की रक्षा -सुरक्षा का जिम्मा क्या आम जनमानस के लिए ही रहती है ? आज हम जिन्हें अपने समाज धर्म परंपरा का आधार स्तंभ मानते हैं या कहते हैं। आज अगर वह स्वयं ही किसी महत्वाकांक्षा के चलते श्रावक – श्राविकाओं की भावनाओं को नजर अंदाज कर कौन सा सामाज हित का कार्य किया जा सकता है । आज हमारे साध्वी जी जो कि स्वयं विद्या – धुलन्धर कहे या धर्म साध्वी पद – प्रतिष्ठा की मान मर्यादा का ज्ञाता कहे फिर भी कहीं कुछ तो…… अभी-अभी मोबाइल फोन पर एक फोटो आया जो की अयोध्या में हुए आयोजन की है एक पत्रकार होने की नाते मन में हो रही जिज्ञासा के कारण प्रश्न उठा की क्या जैन धर्म व समाज सिर्फ फोटो सेशन के लिए ही रह गया है ? क्योंकि अभी विगत कई समय से समाज सिर्फ नाम पद की महत्वाकांक्षा से ऊपर नहीं उठा इसी को भुनाने में सब कुछ भूल कर सिर्फ विघटन और सिर्फ विघटन की और बढ़ रहा है । मतभेद आज मन भेद मे बदल रहे हैं चाहे किसी संस्थान का पदाधिकारी हो या संत परंपरा का पद आज सिर्फ अपनी लालसा ही सर्वमान्य हो गई है ।
पिछले कई दिनों से अयोध्या में भगवान राम की प्रतिष्ठा की चर्चाएं पूरे विश्व में चल रही थी जो सार्थक भी रही जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण देश – दुनिया ने 22 जनवरी को देख लिया क्योंकि वह एक 500 वर्षों की हमारी न्यायपालिका के निर्णय के बाद क्रियान्वित हुई। हम भी उसी राष्ट्र के हिस्से हैं जहां हम ने जन्म लिया हम में भी राष्ट्रहित का जुनून कूट-कूट कर भरा है मगर कुल परिवार संस्कार – संस्कृति भी मानसिकता पर हावी नहीं होने देती । मेरी परम श्रद्धेय पूज्यनीय आर्यिका रत्न 105 चंदनामती माताजी से एक जिज्ञासा बतौर एक प्रश्न है कि क्या आपको वहां पर जैन परंपरा की पदवी अनुरूप ही बैठक व्यवस्था का लाभ मिला था अगर मिला हो तो हमें बहुत गर्व है या अगर सनातन धर्म के साधु – साध्वी के समान मिला तो आप बहुत दु:खद है क्योंकि सभी जानते हैं विश्व के पटल पर सशक्त हस्ताक्षर यह सिद्ध करते हैं कि जैन परंपरा ही सबसे प्राचीन परंपरा रही है जिसकी परंपरा से शायद सृष्टि में कई कार्य हुए हैं या होते है जिससे हमें गर्व होता है जहां तक मैंने सुना और पड़ा है वहां तक मेरे अनुसार अपनी जैन परंपरा ,संस्कार संस्कृतियों को पूरे विश्व मे एक अलौकिक शुद्ध परंपरा माना गया है। आज हमारे चलते-फिरते तीर्थो में श्रमण संस्कृति की परंपरा को धर्म ,समाज, तीर्थक्षेत्र के रक्षार्थ के लिए प्रथम पंक्ति में नाम आता है फिर पंचम काल की अवधारणा का बखान करते हुए या राष्ट्र हित की या मूलगुणो की कहानी में श्रावक व मेरे दायित्व व फर्ज की अंकसूची कार्ड को अनसुलझे पहलुओं में मन में उठ रही जिज्ञासा को वही दफन कर दिया जाएगा। आपकी नजरों में जिज्ञासा बतौर पाठकों के मन दिल दिमाग में .. ..