आर्यिका रत्न श्री 105 पूर्णमति माताजी का 2024 का मंगल चातुर्मास (मुरार) ग्वालियर मे
ग्वालियर ! वर्षाकालस्य चतुर्षुमासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमण त्याग’ अर्थात वर्षाकाल के चार महीनों में साधुओं को भ्रमण का त्याग करके एक स्थान पर रहने का विधान किया गया है। इसे श्रमण के दस स्थितिकल्पों में अन्तिम पर्युषणा कल्प के नाम से अभिहित किया गया है। ‘वृहतकल्पभाष्य’ में इसे ‘संवत्सर’ कहा गया है। वर्षाकाल में आकाशमण्डल में घटायें छाई रहती हैं तथा प्राय: वर्षा भी निरंतर होती रहती है। इससे यत्र—तत्र भ्रमण तथा विहार के मार्ग रुक जाते हैं, नदी नाले उमड़ जाते हैं। वनस्पतिकाय आदि हरितकाय मार्ग ओर मैदानों में फैल जाते हैं। सूक्ष्म—स्थूल जीव—जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। अत: किसी भी परजीव की विराधना तथा आत्म विराधना से बचने के लिए श्रमण धर्म में वर्षाकाल में एकत्र—वास का विधान किया गया है। यही समय एक स्थान पर स्थिर रहने का सबसे उत्कृष्ट समय होता है। श्रमण और श्रावक दोनों के लिये इस चातुर्मास का धार्मिक तथा आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से महत्व है इस वर्ष 20 जुलाई से 1 नवंबर तक 104 दिन का वर्षा योग का समय है आर्यिका रत्न 105 पूर्णमति माताजी के साथ श्रावक -श्राविकाओं के तप साधना की पुण्य धरा ग्वालियर मुरार है ! पूज्य आर्यिका श्री 105 पूर्णमति माताजी आपके इन्हीं रत्नावली का एक दैदीप्यमान रत्न हैं। आपकी ओजस्वी वाणी जहां एक ओर जिनवाणी के गूढतम रहस्यों का रसास्वादन कराती है वहीं अपनी मधुरता से भव्य जीवों के कानों में अमृत का संचार करती है। पूज्य माताजी का जन्म इसी वीर भूमि राजस्थान के बागड़ प्रान्त में डूंगरपुर की पावन वसुन्धरा पर दिनांक 14 मई 1964 को हुआ था। आपके माता – पिता का नाम दिगम्बर जैन श्रेष्ठी श्री अमृतलाल जी जैन तथा श्राविका श्रीमती रुक्मणी देवी जी था। कहते हैं कि जब जब कोई शुभ घटना होने को होती है तब तब उसके लक्षण पूर्व में ही दृष्टिगोचर होने लगते हैं।
आपके जन्म के पूर्व आपकी मां को स्वप्न में अद्भुत और अलौकिक जिनबिम्बों के दर्शन होने लग गये थे तथा शाश्वत तीर्थराज श्री सम्मेद शिखर जी की वन्दना के शुभ भाव स्वप्न में प्रकट होने लग गये थे। यह सब गर्भस्थ शिशु के पुण्यप्रभाव तथा पवित्रता का ही तो प्रतीक था । प्रारम्भ से ही आपकी वाणी में वीणा के तार झंकृत होने के कारण माता पिता ने आपका सार्थक नाम वीणा’ रखा । आपने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण के पश्चात् भी साधना में पूर्णता अभाव महसूस करते हुए अनवरत स्वयं की खोज में लगे हुए अमूर्त शिल्पी तथा पूर्णता के सागर आ. श्री विद्यासागर जी की धवल तथा पावन लहरों में अपने को समर्पित कर दिया तथा दिनांक 7 अगस्त 1989 को श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर में उनका पूर्ण गुरु अनुग्रह प्राप्त कर आर्यिका दीक्षा उपरान्त’ पूर्णमति यह स्वनामधन्य तथा सार्थक नाम प्राप्त किया साथ ही पूर्वार्जित ज्ञान तथा चारित्र को परिष्कृत तथा परिमार्जित किया। आपके इस अगाध ज्ञान की झलक आप हारा विरचित विविध साहित्य में देखने को मिलती है। आपने कुण्डलपुर बड़े बाबा विधान, श्री शांतिनाथ विधान आदिक अनेकों विधान अपनी छन्द प्रवीणा लेखनी से निस्सरित किये हैं जो कि भव्य जीवों के मुक्ति मार्ग को प्रशस्त करते हैं। पूज्य माताजी अपने प्रवचनों में अधिकांश रूप से मानवतावादी सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती हैं, अपने कण्ठ के बजाय हृदय से निकलने वाली हित मित प्रिय वाणी से इन्हीं सिद्धान्तों के अनुरूप जीवन शैली अपनाने के प्रेरित करती हैं। आप कोरी शुष्क तत्व ज्ञानी नहीं हैं अपितु ज्ञान, तप, रस, भाव, आत्म सौन्दर्य, कला और साहित्य की एक जीवन्त समन्वय मूर्ति हैं। आपने अपने गुरु की प्रज्ञा परम्परा की अनन्य प्रतिनिधि हैं।
आपका स्वयं का जीवन त्याग, तप व सरलता से ओत प्रोत है। साधना की खुशबू से महकता ऐसा आचरण चेहरे पर ऐसी चमक, समर्पण की ज्योति से जगमगाती आंखें ऐसी सहज पारदर्शी मुस्कान के रूप में मैंने जीवन के ऐसे शाश्वत अक्षय सौन्दर्य के दर्शन किये हैं तथा अब मेरे हर ऊहापोह को भेदकर आपका हर शब्द हमारे लिये अनिवार्य आदेश है।