उज्जैन की पुण्य धरा तपोभूमि पर चल रहे 50 दिवसीय श्री सिद्धचक्र महामंडल विधान का लाभ ले
उज्जैन!(देवपुरी वंदना) राजा श्रीपाल का कुष्ठ रोग (कोढ ) उज्जैन की पवित्र पावन भूमि पर ही श्री सिद्धचक्र महामंडल विधान की पूजा द्वारा ही ठीक हुआ था आज के समय काल में भी उज्जैन का उतना ही महत्व है आज भी इस पवित्र भूमि पर देश दुनिया का मानव अपनी शारीरिक, आर्थिक ,मानसिक कठिनाइयों को लेकर आता है विश्वास ही बहुत बड़ी पूजा होती है किसी भी श्रावक श्राविका ने अपने मन से यहां की पवित्र भूमि पर पूजा पाठ किया तो उसकी सभी रोग शोक दूर हो जाते हैं यह बात पुष्पगिरी प्रणिता गणाचार्य 108 पुष्पदंत सागर जी के सुशिष्य तपोभूमि के रचयिता गुरुवर आचार्य आचार्य श्री 108 प्रज्ञा सागर जी महाराज ने भारत देश के विभिन्न प्रांतों से आए श्रावक -श्राविकाओ की उपस्थिति में चल रहे हैं 50 दिवसीय सिद्धचक्र महामंडल विधान मैं कहीं । इस शुभ अवसर पर उज्जैन से जुड़े और भी पौराणिक इतिहास का वर्णन भी आचार्य श्री ने किया । प्रतिष्ठाचार्य जी के दिशा निर्देशन में यह विधान किया जा रहा है। मंदिर प्रांगण में सुबह से नित्य नियम पूजा अभिषेक के साथ मंडलजी की पूजा में समाजजनों बहुत प्रसन्नता के साथ आनंद उल्लास के बीच सिद्ध भगवान की आराधना के साथ आचार्य श्री के मुखारविंद सेश्रीपाल-मैना सुंदरी की जानकारी लेते हुए । कि किस प्रकार श्रीपाल राजा को कोढ़ होने पर मैना सुंदरी ने सिद्धचक्र मंडल विधान पूजा की। उनकी भक्ति से पीड़ा समाप्त हुई। यह संपूर्ण कथा उज्जैन पर आधारित है। उज्जैन में ही राजा को इस बीमारी से मुक्ति मिली थी। आचार्य श्री ने इस दृष्टांत से विधान का जीवन में महत्व बताया ।
उज्जैन शहर की पवित्र तपोभूमि पर आचार्य श्री 108 प्रज्ञा सागर जी महाराज के सानिध्य में 50 दिवसीय श्री सिद्धचक्र महामंडल विधान आयोजित किया जा रहा है। जिसका लाभ रोज अनेकों श्रावक ले रहे हैं।
पौराणिक कथा कुछ इस प्रकार है
चम्पापुर के राजा का नाम अरिदमन और रानी का नाम कुन्दप्रभा था। रानी कुन्दप्रभा, कुन्दपुष्प के समान लावण्यमयी, गुण और शील में अद्वितीय थी। रानी कुन्दप्रभा के अत्यन्त धीर-वीर, उदारवेत्ता, दीनवत्सल, धर्मप्रिय पुत्र रत्न हुआ। उस बालक का नाम श्रीपाल रख दिया। राज्य संचालन में दत्तचित, कामदेव के समान श्रीपाल को एवं अन्य 700 वीरों को अचानक एक साथ महाभयानक कुष्ठ रोग हो गया, जिससे इन लोगों का शरीर गलने लगा एवं खून बहने लगा। इन लोगों की दयनीय दशा को देखकर प्रजाजन अत्यन्त क्षुब्ध एवं दु:खी रहते थे। जब रोग की दुर्गन्ध के कारण वातावरण बिगड़ने लगा, तब वीरदमन चाचा जी के कहने पर श्रीपाल 700 वीरों के साथ नगर से बहुत दूर उद्यान में जाकर निवास करने लगे।
एक उज्जयनी नामक ऐश्वर्यपूर्ण नगरी थी। जिसके राजा का नाम पुहुपाल था। अनेक रानि पद्मरानी के गर्भ से सुरसुन्दरी एवं मैनासुन्दरी नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। उनमें से सुरसुन्दरी शैव गुरु से एवं मैनासुन्दरी ने आर्यिका से धार्मिक अध्ययन किया था। पिता के पूछने पर सुरसुन्दरी ने अपनी स्वेच्छानुसार हरिवाहन से विवाह स्वीकार कर लिया,परन्तु मैनासुन्दरी ने कहा कि पिता जी, कुलीन एवं शीलवती कन्यायें अपने मुख से किसी अभीष्ट वर की याचना कदापि नहीं करती है। मैनासुन्दरी की विद्वतापूर्ण वार्ता को सुनकर राजा पुहुपाल तिलमिला गये और उन्होंने क्रोध में आकर कोढ़ी राजा श्रीपाल से विवाह कर दिया। राजा श्रीपाल के कुष्ठ रोग को दूर करने के लिये मैनासुन्दरी ने गुरु के आशीर्वाद एवं विधि के अनुसार अष्टाहिनका पर्व में श्री सिद्धचक्र महामण्डल विधान का आयोजन किया, जिसके प्रभाव से श्रीपाल के साथ 700 वीरों का भी कुष्ठरोग ठीक हो गया।
कुछ समय बाद श्री पाल मैनासुन्दरी के साथ चम्पापुरी वापस आ गये। एक दिन श्रीपाल अपने महल के छत पर बैठे हुये थे। आकाश में बिजली चमकी, जिसे देखकर उन्हें वैराग्य हो गया। वे अपने पुत्र धनपाल को राज्य सौंपकर वन की ओर चले गये। उनके साथ हजारों की संख्या में मनुष्य तथा माता कुन्दप्रभा भी वन को प्रस्थान कर गई।
श्रीपाल ने मुनीश्वर के पास जाकर जिनदीक्षा धारण कर ली। उनके साथ 700 वीरों ने भी दीक्षा ले ली, माता कुन्दप्रभा व अन्य रानियों ने भी आर्यिका के व्रत ग्रहण किये। कठोर तपस्या करते हुए अल्पसमय में ही घातिया कमों को नष्टकर केवलज्ञान प्राप्त किया और फिर शेष कर्मों को नष्ट कर मोक्षधाम को प्राप्त हुये ।
सचिन कासलीवाल
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