अक्षय तृतीया 10 मई जैन तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का प्रथम आहार
इंदौर ! भारतीय संस्कृति में बैसाख शुक्ल तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है, इसे अक्षय तृतीया भी कहा जाता है। जैन दर्शन में इसे श्रमण संस्कृति के साथ युग का प्रारंभ माना जाता है। जैन दर्शन के अनुसार भरत क्षेत्र में युग का परिवर्तन भोग भूमि व कर्मभूमि के रूप में हुआ। भोग भूमि में कृषि व कर्मों की कोई आवश्यकर्ता नहीं। उसमें कल्प वृक्ष होते हैं, जिनसे प्राणी को मनवांछित पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। कर्म भूमि युग में कल्प वृक्ष भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और जीव को कृषि आदि पर निर्भर रह कर कार्य करने पड़ते हैं। भगवान आदिनाथ इस युग के प्रारंभ में प्रथम जैन तीर्थंकर हुए।
उन्होंने लोगों को कृषि और षट् कर्म के बारे में बताया तथा ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य की सामाजिक व्यवस्थाएं दीं। इसलिए उन्हें आदि पुरुष व युग प्रवर्तक कहा जाता है। राजा आदिनाथ को राज्य भोगते हुए जब जीवन से वैराग्य हो गया तो उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली तथा 6 महीने का उपवास लेकर तपस्या की। छह माह बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई तो वे आहार के लिए निकले। जैन दर्शन में श्रावकों द्वारा मुनियों को आहार का दान किया जाता है। लेकिन उस समय किसी को भी आहार की चर्या का ज्ञान नहीं था। जिसके कारण उन्हें और छह महीने तक निराहार रहना पड़ा। बैसाख शुल्क तीज (अक्षय तृतीया) के दिन मुनि आदिनाथ जब विहार (भ्रमण) करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे। वहां के राजा श्रेयांस व राजा सोम को रात्रि को एक स्वप्र दिखा, जिसमें उन्हें अपने पिछले भव के मुनि को आहार देने की चर्या का स्मरण हो गया। तत्पश्चात हस्तिनापुर पहुंचे मुनि आदिनाथ को उन्होंने प्रथम आहार इक्षु रस (गन्ने का रस) का दिया। जैन दर्शन में अक्षय तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है और जैन श्रावक इस दिन इक्षु रस का दान करते हैं।