दान पहले घर से शुरू करे (Charity begins from home). चीरंजी लाल बगड़ा, संपादक :- दिशा बोध विचार मासिक, कोलकाता
(देवपुरी वंदना)! मन्दिर में दान देने से पहले देखें कि अपने बंधु, स्वधर्मी बन्धु अथवा अपने किसी पड़ोसी को तो इसकी ज़रूरत नहीं हैं ?
अभी हाल ही में हमने सोशल मीडिया में एक आचार्यश्री का , जैन दर्शन, समाज और संघ के हित में , अत्यंत ही प्रेरणादायक वीडियो सन्देश देखा।
आचार्यश्री ने अपने उस वीडियो सन्देश में कहा कि यदि आपके पास दान करने के लिए अतिरिक्त धनराशि हो तो, उसे सबसे पहले अपने जरुरतमंद भाई अथवा स्वधर्मी बन्धु की सहायता के लिए देने का प्रयास करें।
इस सन्दर्भ में उन्होने एक उदाहरण देते हुए बताया कि एक श्रावक ने उनसे निवेदन किया कि वह ग्यारह लाख रुपये मन्दिर में दान करना चाहता है, तो आचार्यश्री ने उन्हे सुझाव दिया कि मन्दिर से ज्यादा आवश्यकता अपने किसी भाई अथवा स्वधर्मी बन्धु को तों नहीं हैं ? इसलिए सर्वप्रथम वह अपने बग़ल में झाँककर देखे की उसके परिचित को पैसे की ज़रूरत तो नहीं हैं ?
तब उस व्यक्ति को ख्याल आया कि उसका सगा भाई ही निर्धन अवस्था में हैं और अपना जीवन यापन बड़ी मुश्किल से कर रहा है। उस व्यक्ति ने अपने भाई को पर्याप्त धनराशि देकर उसके व्यवसायिक प्रतिष्ठान को सुचारू रूप से स्थापित करने के लिए मदद की। कुछ सालों पश्चात वह भाई स्वयं आर्थिक रूप से इतना सक्षम हो गया कि वो भी अन्य स्वधर्मी बन्धुओं की सहायता करने लगा।
पूज्य आचार्य श्री का यह कथन बेहद सामयिक एवम व्यवहारिक है और सबको उनके विचारों का पूर्ण समर्थन करना चाहिए । जैन दर्शन का अनुपालन करने वाले सभी संघ नायकों और साधु सन्तो से विनती है कि वे इस वर्ष के चातुर्मास का प्रमुख विषय (Theme)”स्वधर्मी सहयोग” रखें एवं स्वधर्मी बन्धुओं की आर्थिक सहायता व उत्थान के लिए जैन समाज के लोगो को तार्किक और सकारात्मक तरीके से प्रेरित करें।
दान की आवश्यकता भगवान से अधिक समाज को है l समाज अगर सशक्त और संघठित है, तो मंदिर और बना लेंगे परंतु अगर समाज कमज़ोर और विभक्त है, तो जो मंदिर बने हुए है वे भी दूसरे समाज वाले हड़प लेंगे, जैसे आज प्राचीन तीर्थों के साथ हो रहा है, गिरनार के साथ हुआ हैl
इसके अतिरिक्त जैन समाज को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि समाज द्वारा स्थापित शिक्षालयो और स्वास्थ्य सेवाओं में स्वधर्मी बन्धुओं को निशुल्क या न्यूनतम दरों पर सेवा मिले। वर्तमान में देखा जाता है कि समाज द्वारा स्थापित और संचालित अधिकांश सामाजिक शिक्षण और स्वास्थ्य संस्थानों में स्वधर्मी बन्धुओं को प्रदान की जाने वाली सहायता अत्यंत ही अल्प और अपर्याप्त है।
सभी पूज्य संतों से हमारा विनम्र अनुरोध है कि वे आचार्यश्री के स्वधर्मी बन्धुओं की सहायता के सन्देश की अनुमोदना करें और समाज को इस कार्य को करने के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रेरित करने का प्रयास करे।
अभी हम अपनी धर्मपत्नी आशा जी के आग्रह पर एक मंदिर जी के त्रय दिवसीय वेदी प्रतिष्ठा समारोह मे गए, वहाँ हमने करीब नब्बे मिनट सहभागिता की, परंतु भाव विशुद्धि होने की जगह दिमाग मे अनर्गल विचार आने लगे, क्योंकि पच्चास मिनट तो बढ़ चढ़ कर बोलियों मे ही समय लग रहा था, सब अर्थ-संग्रह मे व्यस्त थे, धार्मिक क्रिया नदारद l आयोजन के समय के अलावा क्या बोली पूर्व मे नहीं की जा सकती ताकि धार्मिक आयोजन की सातत्यता बनी रह सकें ?
आज से करीब तीस वर्ष पूर्व ही हमने अर्थक्षेत्र से सन्यास लेकर समाज सेवा को अपना पूर्णकालिक कार्यक्षेत्र चुन लिया था l
उस वक्त लखपति होना भी सम्मानजनक माना जाता था, एक लाख रुपये की राशि भी उस वक्त बड़ी राशि मानी जाती थी, हम ठहरे साधारण जीवन जीने वाले संतोषी प्राणी l सोचा था, बचे रुपये के ब्याज से ही आराम से अपनी बाकी बची जिंदगी गुजार लेंगे l भगवान महावीर के, जीवों और जीने दो के सूत्र को, अपना चारित्र बनाया, करोड़ों पशुओं को अभय और लाखों लोगों को शाकाहार की प्रेरणा दी और जैन दर्शन के प्रचार प्रसार के कार्य को प्रमुखता दी और आज भी सतत उसी मे लगे हुए है l
ब्याज दर घटती गयी और महंगाई बढ़ती गयी, इस बीच कर्म की मार ऐसी पड़ी कि पुत्र और पुत्री के विवाह की ज़िम्मेदारी पूरी कर देने के बावज़ूद, आज भी उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी, उन सबके भरण पोषण की ज़िम्मेदारी पुनः आ उपस्थित हुई है l अंतर्यात्रा के इस पड़ाव पर भी हम गृहस्थी की ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो पाए है l हमने अपने शताधिक प्राप्त पुरुस्कार राशि को भी अपने सामाजिक कार्य क्षेत्र मे ही निवेश कर दिया l दिशाबोध विचार मासिक आज भी मुख्यतः हम बिना शुल्क, बिना विज्ञापन अपने संसाधन से निरंतर निकाल ही रहे है l
हमने शिक्षा काल मे पढ़ा था कि अगर धन गया तो कुछ नहीं गया, अगर स्वास्थ गया, तो समझों कुछ गया परंतु अगर चारित्र चला गया तो समझ लो, सब कुछ चला गया
परंतु हमारे जैन समाज का तो सूत्र है कि अगर गृहस्थ के पास पैसा नहीं है, तो वह दो कौड़ी का है l
और रही चारित्र की बात तो उसका हमारे समाज मे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता l
कोलकाता का कुख्यात *सुपर फोर्टीन सेक्स कांड* को याद कर लीजिये, सभी व्यक्ति आज अपने पैसे के बल पर समाज के सम्माननीय सदस्य है l
जब तक धर्म मे अर्थ की प्रधानता रहेगी, यह स्थिति बदलने वाली नहीं है l
दान मे अर्थ की प्रतिस्पर्धा की जगह चारित्र को प्रमुखता दी जानी चाहिए, धार्मिक आयोजन सादगी पूर्ण होने चाहिए, स्वधर्मी के स्वाभिमान को सुरक्षित रखते हुए साधर्मी वात्सल्य को बढ़ावा मिलने से ही जैन समाज मजबूत होगा, क्योंकि आज महंगाई के इस दौर मे दो-तिहाई जैन आबादी का, निम्न स्तर के नीचे या निम्न मध्यम वर्गीय श्रेणी मे होना, जैन समाज की गौरव शाली परंपरा के लिए अच्छी मिसाल नहीं है, कोई आदर्श समाज संरचना नहीं है l
जब जागे, तभी सवेरा l
जैन समाज के उन्नत भविष्य की कामना के साथ
चीरंजी लाल बगड़ा ✍🏻
कोलकाता
9331030556