लोकोपकारी परम प्रभावक तीर्थंकर पार्श्वनाथ – प्रो. फूलचंद जैन प्रेमी, वाराणसी (राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त)

(देवपुरी वंदना) जैन परंपरा में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी तक के इन चौबीस तीर्थंकरों की गौरवशाली परंपरा में बनारस नगरी में जन्मे सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, अष्टम तीर्थंकर चंद्रप्रभु, ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ और तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ।
इनमें अब सै लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व काशी में जन्मे तीर्थंकर पार्श्वनाथ का व्यापक व्यक्तित्व संपूर्ण देश में अत्यंत लोकप्रिय जननायक, कष्ट एवं विघ्न विनाशक, सभी प्राणियों के उद्धारक, समदर्शी आदि रूपों में पूजित और प्रभावक रहा है। नौवीं शती ईसा पूर्व काशी नरेश महाराजा अश्वसेन और महारानी वामादेवी के घर जन्मे तीर्थंकर पार्श्वनाथ, जो कि इस श्रमण परंपरा के एक महान पुरस्कर्ता थे, उस विषयक कोई व्यवस्थित रूप में साहित्य वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, किंतु अनेक प्राचीन ऐतिहासिक प्रामाणिक स्रोतों से वे एक ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में मान्य हैं।
पार्श्वनाथ का जन्म उग्रवंश में हुआ था। वाराणसी के महाराजा ब्रह्मदत्त के पूर्वज उग्गसेन, धनंजय, महासोलव, संयम, विस्ततेन और उदयभट्ट के नाम बौद्ध जातकों में मिलते हैं। संभवतः इनमें उग्गसेन से उग्रवंश प्रचलित हुआ होगा।वैदिक साहित्य के बृहदारण्यक में भी गार्गी और याज्ञवल्क्य में सम्वाद के समय गार्गी ने ‘काश्यो वा वैदेहो वा उग्रपुत्रः’ कहकर काशी और विदेह जनों को उग्रपुत्र कहा है। बौद्ध जातक में पूर्व में उल्लिखित नामों में ‘विस्ससेन’ का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन का दूसरा नाम प्राकृत साहित्य में ‘विस्ससेन’ (विश्वसेन) ही विशेष मिलता है। उग्रवंश आदि इक्ष्वाकुवंशी ही थे।
पौराणिक कथानक के अनुसार पार्श्वनाथ के जन्म के पूर्व उनकी माता वामादेवी ने रात्रि के अंतिम प्रहर में सोलह मांगलिक स्वप्न देखे, जिनका फल था-पार्श्वनाथ अपनी मां के गर्भ में आए। अतः वैशाख कृष्ण द्वितीया को विशाखा नक्षत्र में आनत स्वर्ग से समागत पार्श्वनाथ के पूर्वभव के जीव आनतेंद्र को जैसे ही माता ने अपनी पवित्र कोख में धारण किया कि माता प्राची दिशा की भांति कांतियुक्त हो गईं। नौ माह पूर्ण होते ही पौष कृष्णा एकादशी को अनिल योग विशाखा नक्षत्र में जिस पुत्र का जन्म हुआ वही आगे चलकर तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ बने। वे तीस वर्ष तक कुमारावस्था में रहे। फिर उन्होंने पौष कृष्ण एकादशी के प्रातः तीन सौ राजाओं के साथ मुनि दीक्षा ग्रहण की। संयम और ध्यान साधना में आपको अनेकानेक भयंकर कष्टों का सामना करना पड़ा, किंतु आप उनसे किंचित् विचलित हुए बिना तपश्चरण में लीन रहे और लंबी साधना के बाद उन्हें चैत्र कृष्ण चतुर्थी को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी। इस प्रकार केवलज्ञान की प्राप्ति के साथ ही अर्हन्त पद प्राप्त करके वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गए। दीर्घ और कठिन संयम साधना के बाद उन्हें आत्मोपलब्धि की प्राप्ति हुई। इस प्रकार आत्म-कल्याण के बाद, अर्थात् वे जन-जन के कल्याण स्वरूप आत्मोत्थान हेतु सम्पूर्ण देश में, विशेष रूप में काशी, कोशल, पांचाल, मरहटा, मारु, मगध, अवंती, अंग-बंग-कलिंग आदि सभी क्षेत्रों के गाँव- गाँव, नगर – नगर में भ्रमण करते हुए धर्मोपदेश के द्वारा अहिंसा, सत्य, सर्वोदय आदि सिद्धांतों का प्रचार- प्रसार किया एवं धर्मान्धता, पाखंड, कुरीतियों, ऊंच-नीच की भावना-आदि दोषों को दूर करने का उपदेश देते और विहार करते हुए झारखंड प्रदेश के हजारीबाग के निकट शाश्वत और पवित्र सिद्ध क्षेत्र श्री सम्मेद शिखर जी पधारे, जहां प्रतिमायोग धारण करते ही श्रावणशुक्ला सप्तमी की प्रातः वेला में अवशिष्ट अघातियों के कर्मों का क्षय करके उन्होंने मोक्ष (निर्वाण)पद प्राप्त किया। उनके आदर्शपूर्ण जीवन और धर्म-दर्शन की लोकव्यापी छवि आज भी संपूर्ण भारत तथा इसके सीमावर्ती क्षेत्रों और देशों में विविध रूपों में दिखलाई देती है। सम्पूर्ण देश में प्राचीन काल से अब तक सर्वाधिक रूप में प्राप्त इनकी मूर्तियों की पहचान मुख्यतः सप्त फणावली और पादपीठ के मध्य सर्प चिह्न से होती है। यक्ष धरणेन्द्र और यक्षिणी पद्मावती का मूर्तांकन भी इनकी मूर्ति की पहचान में सहयोगी बनते हैं।
लोकव्यापी प्रभाव
अर्धमागधी प्राकृत साहित्य में ‘पुरुसादाणीय’ अर्थात् लोकनायक श्रेष्ठपुरुष जैसे अति लोकप्रिय व्यक्तित्व के रूप में प्रयुक्त इनके सम्मानपूर्ण विशेषणों का उल्लेख मिलता है। वैदिक और बौद्ध आदि अनेक धर्मों तथा अहिंसा एवं आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत संपूर्ण भारतीय संस्कृति पर इनके चिंतन और प्रभाव की अमिट गहरी छाप आज भी विद्यमान है। वैदिक, जैन और बौद्ध साहित्य में इनका उल्लेख मिलता है तथा व्रात्य, पणि और नाग आदि जातियां स्पष्टतः पार्श्वनाथ की अनुयायी थीं। वर्तमान में भारत में प्रचलित नाग-पूजा भी निश्चियतः इन्हीं से संबंद्ध प्रतीत होती है।
भारत के पूर्वी क्षेत्रों, विशेषकर बंगाल, बिहार, उड़ीसा आदि अनेक प्रान्तों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में लाखों की संख्या में बसने वाली सराक, सद्गोप, रंगिया आदि जातियों का सीधा और गहरा संबंध तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परंपरा से है। इन लोगों के दैनिक जीवन व्यवहार की क्रियाओं और संस्कारों पर आज भी तीर्थंकर पार्श्वनाथ और उनके चिंतन की गहरी छाप है।
जैनधर्म का प्राचीन इतिहास (भाग 1, पृ. 359) के अनुसार नाग, द्रविड़ और बंगाल, बिहार, उड़ीसा, झारखंड आदि क्षेत्रों की आदिवासी जातियों विशेष रूप में सराक बहुल इलाकों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ का अतिशय प्रभाव और मान्यता आज भी विद्यमान है । श्रमण संस्कृति के अनुयायी व्रात्यों में नागजाति सर्वाधिक शक्तिशाली थी। तक्षशिला, उद्यानपुरी, अहिच्छत्र, मथुरा, पद्मावती, कांतिपुरी, नागपुर आदि इस जाति के प्रसिद्ध केंद्र थे। तीर्थंकर पार्श्वनाथ नाग जाति के इन केंद्रों में कई बार पधारे और यहां इनके चिंतन से प्रभावित हो सभी इनके अनुयायी बन गए। इस दिशा में गहन अध्ययन और अनुसंधान से आश्चर्यकारी नये तथ्य सामने आ सकते हैं, जो तीर्थकर पार्श्वनाथ के लोकव्यापी स्वरूप को और अधिक स्पष्ट रूप से उजागर कर सकते हैं।
इसी संदर्भ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. जगदीश गुप्त का यह कथन महत्त्वपूर्ण है- “तीर्थंकर पार्श्वनाथ की महत्ता नागपूजा, यक्ष पूजा और सूर्य पूजा से समर्थित है। इससे यह सिद्ध होता है कि भारतीय संस्कृति में उनकी कितनी लोकप्रियता रही है और कितने रूपों में उन्हें चित्रित एवं उत्कीर्ण किया गया है। भारतीय कलाकारों ने कितनी तन्मयता से उनके स्वरूप को अपनी कल्पना से समृद्ध किया है। नाग-छत्र के भी कितने रूप मिलते हैं-यह पार्श्वनाथ की असंख्य प्रतिमाओं के अनुशीलन से पहचाना जा सकता है। मेरी दृष्टि में भारतीय संस्कृति के स्वरूप को समझने के लिए तीर्थंकर महावीर और गौतम बुद्ध के बाद यदि कोई जैन तीर्थंकर कलात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, तो वे पार्श्वनाथ ही हैं। ईसा पूर्व की दूसरी-तीसरी सदी के जैनधर्मानुयायी सुप्रसिद्ध कलिंग नरेश महाराजा खारवेल भी इन्हीं के प्रमुख अनुयायी थे। इस प्रकार अंग, बंग, कलिंग, कुरु, कौशल, काशी, अवंती, पुण्ड, मालव, पांचाल, मगध, विदर्भ, भद्र, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्नाटक, कोंकण, मेवाड़, लाट, कश्मीर, कच्छ, वत्स, पल्लव और आभीर आदि तत्कालीन अनेक क्षेत्रों, राष्ट्रों और देशों का उल्लेख आगमों में मिलता है, जिनमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने ससंघ विहार करके जन-जन के लिए हितकारी धर्मोपदेश देकर जागृति पैदा की।
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा उनके लोकव्यापी चिंतन ने लंबे समय तक धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र को प्रभावित किया है। व्यवहार की दृष्टि से उनका धर्म सहज था। धार्मिक क्षेत्रों में उस समय पुढेषाण, वित्तैषणा, लोकैषणा आदि के लिए हिंसामूलक यज्ञ तथा अज्ञानमूलक तपों का काफी प्रचलन था, किंतु उन्होंने पूर्वोक्त क्षेत्रों में विहार (भ्रमण) करके अहिंसा और अपने अंदर विराजमान अनंत शक्तियों को जाग्रत करने का जो समर्थ प्रचार किया, उसका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा और अनेक आर्य तथा अनार्य जातियां उनके धर्म में दीक्षित हो गईं। धर्म के नाम पर हिंसा की जगह आज भी जो अहिंसक प्रभाव और प्रयोग देखे जा रहे हैं, इनमें पार्श्वनाथ के उपदेशों का ही विशेष प्रभाव है ।
आचार्य समन्तभद्र ने आपकी स्तुति करते हुए कहा है —
स सत्य विद्यातपसां प्रणायकः समग्रधीरुग्रकुलाम्बरांशुमान।
मया सदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते विलीन मिथ्यापथदृष्टि विभ्रमः ।।
अर्थात् आप सत्य विद्याओं और तपस्याओं के प्रणेता हैं, पूर्णबुद्धि युक्त सर्वज्ञ हैं तथा उग्रवंश रूप आकाश में चंद्रमा के समान हैं। आपने अपने उपदेशों के द्वारा मिथ्यादर्शन आदि अनेक कुमार्ग दृष्टियों को दूर कर सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र्य रूप रत्नत्रय का मार्ग प्रशस्त किया है। इसलिए हे पार्श्व! इन गुणों के कारण मैं सदा आपको प्रणाम करता हूं।हमारे देश के हजारों नए और प्राचीन जैन मंदिरों में सर्वाधिक तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्तियों की उपलब्धता भी उनके प्रति गहरे आकर्षण, गहन-आस्था और लोकव्यापी प्रभाव का ही परिणाम है। मध्य एवं पूर्वी देशों के व्रात्य क्षत्रिय उनके अनुयायी थे। गंगा का उत्तर एवं दक्षिण भाग तथा अनेक नागवंशी राजतंत्र एवं गणतंत्र उनके अनुयायी थे। श्रावस्ती के श्रमण केशीकुमार भी पार्श्व की ही परंपरा के श्रमण थे। संपूर्ण मगध भी भगवान पार्श्वनाथ का उपासक था। तीर्थंकर महावीर के माता-पिता तथा अन्य संबंधी पार्श्वापत्य परंपरा के श्रमणोपासक थे।
महात्मा बुद्ध के जीवन-प्रसंग से पता चलता है कि वे अपनी साधनावस्था में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परंपरा से संबद्ध रहे हैं। पालि साहित्य के मज्झिमनिकाय,महासिंहनादसुत्त(1.1.2)के उल्लेखानुसार एक बार महात्मा बुद्ध अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से कहते हैं- “सारिपुत्र! बोध प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी, मूंछों का लुंचन करता था। मैं खड़ा रहकर तपस्या करता था, उकडूं बैठकर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था। लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था। .बैठे हुए स्थान पर आकर दिए हुए अन्न को, अपने लिए तैयार किए हुए अन्न को और निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था। गर्भिणी व स्तनपान कराने वाली स्त्री से भिक्षा नहीं लेता था।”
महात्मा बुद्ध द्वारा वर्णित यह समस्त आचार जैन साधुओं से सम्बन्धित हैं। इससे प्रतीत होता है कि महात्मा गौतमबुद्ध सर्वप्रथम तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परंपरा के किसी श्रमण संघ में दीक्षित हुए होगें, वहां से उन्होंने बहुत कुछ सद्ज्ञान प्राप्त किया। बाद में बुद्ध ने कठिन तपश्चर्या आदि किसी कारणवश अलग होकर मध्यममार्गी बन अपना स्वतंत्र मत चलाया होगा।
कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि प्रधान वेदों के बाद उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता के समावेश में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चिंतन का काफी प्रभाव है। इस तरह वैदिक परंपरा को आध्यात्मिक रूप प्रदान करने में इनका बहुमूल्य योगदान माना जा सकता है।
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ का ऐसा लोकव्यापी प्रभाव व्यक्तित्व एवं चिंतन था कि कोई भी एक बार इनके या इनकी परंपरा के परिपार्श्व में आने पर उनका प्रबल अनुयायी बन जाता था। तभी तो हिंदी जगत के शिखर पुरुष भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखाः
तुमहि तौ पार्श्वनाथ हो पियारे, तलफन लागै प्रान बगल तै छिनहु होत न न्यारै।
तुम सौ और पास नहीं कोउ, मानहु करि पतियारे, ‘हरीचंद्र’ खोजत तुमही को वेद-पुरान पुकारै ।।


प्रो.फूलचन्द जैन प्रेमी✍🏻
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